उत्तराखंड के लोकप्रिय पर्यटक स्थल धराली गाँव में हाल ही में आई जलवायु आपदा ने एक बार फिर हिमालयी क्षेत्रों की संवेदनशीलता को उजागर कर दिया है। सोशल मीडिया पर प्रसारित हुए दृश्यों में एक जलधारा को रौद्र जलप्रलय में बदलते और पूरे गाँव को 40 से 60 फीट मलबे में दबाते हुए दिखाया गया है।
भूस्खलन और झील के फटने से हुई तबाही
भूवैज्ञानिकों और इसरो के प्रारंभिक विश्लेषण के अनुसार, यह त्रासदी ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) का परिणाम थी। खीरगंगा धारा के ऊपरी क्षेत्र में भूस्खलन से बनी एक झील के अचानक फटने से यह भयावह जलप्रलय शुरू हुआ, जिसने ऊपर की कई अन्य झीलों को भी प्रभावित किया। धराली गाँव, जो एक पुराने सूखे जलमार्ग पर बसा था, सीधे इस बाढ़ की चपेट में आ गया, जिससे एक सेना का शिविर बह गया और जान-माल का भारी नुकसान हुआ।
विशेषज्ञ चेतावनियों की अनदेखी और अनियंत्रित विकास
यह आपदा केवल एक प्राकृतिक घटना नहीं है, बल्कि पिछले दो दशकों में हुए अनियंत्रित निर्माण कार्यों और पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी का परिणाम भी है। लेख में बताया गया है कि 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद भी विकास परियोजनाओं को बिना उचित पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) के तेज़ी से आगे बढ़ाया गया।
रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ समिति ने स्पष्ट रूप से चेतावनी दी थी कि ऐसे निर्माण कार्य हिमालयी पारिस्थितिकी के लिए घातक हैं, लेकिन इनकी रिपोर्ट को नजरअंदाज किया गया। चारधाम सड़क परियोजना और अन्य रेल परियोजनाओं के तहत भारी विस्फोट और खुदाई की जा रही है, जिससे भूस्खलन का खतरा और बढ़ गया है।
देश के लिए चेतावनी: हिमालय से पूर्वोत्तर तक खतरा
यह त्रासदी केवल उत्तराखंड की नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए एक चेतावनी है। लेख में पूर्वोत्तर भारत के राज्यों जैसे अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर का भी उल्लेख है, जहाँ बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के कारण पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ रहा है। अरुणाचल में प्रस्तावित दिबांग परियोजना के लिए 3.24 लाख पेड़ों की कटाई का प्रस्ताव इस विनाशकारी विकास नीति का एक और उदाहरण है।
अंत में, यह लेख इस बात पर जोर देता है कि आर्थिक विकास तभी स्थायी हो सकता है जब वह पर्यावरणीय संरक्षण के सिद्धांतों पर आधारित हो। धराली जैसी आपदाएं नीति-निर्माताओं को यह चेतावनी देती हैं कि अब भी समय है कि वे अपनी सोच और दिशा बदलें।
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