शादियों में फिजूल खर्ची बनती हल्दी रस्म,अमीरों के फ़ैशन के चक्कर में पिस रहा बेचारा गरीब

Haldi ritual becomes a wasteful expense in weddings, the poor are getting crushed due to the fashion of the rich

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राजू अनेजा-

आजकल शादियों में अक्सर देखे जाने वाली हल्दी रस्म के चक्कर लोग एक दूसरे की देखा देखी में हजारों रुपये खर्च कर रहे है परंतु अमीरों के फ़ैशन के चक्कर में बेचारा गरीब पिसता दिखाई दे रहा है फिजूल खर्ची की इस रस्म की कोई लिमिट नही बल्कि दिखावे के चक्कर मे कई लोग इतना खर्चा कर रहे कि इतने खर्चे में  गरीब आदमी की  पूरी शादी निबट जाय।

 

आज कल ग्रामीण परिवेश में होने वाली शादियों में एक नई रस्म का जन्म हुआ है हल्दी रस्म।हल्दी रस्म के दौरान हजारों रूपये खर्च कर के विशेष डेकोरेशन किया जाता है, उस दिन दूल्हा या दुल्हन विशेष पीत (पीले) वस्त्र धारण करते हैं। साल 2020 से पूर्व इस हल्दी रस्म का प्रचलन ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं पर भी देखने को नहीं मिलता था, लेकिन पिछले साल दो-तीन साल से इसका प्रचलन बहुत तेजी से ग्रामीण क्षेत्र में बढ़ा है।

पहले हल्दी की रस्म के पीछे कोई दिखावा नहीं होता था, बल्कि तार्किकता होती थी। पहले ग्रामीण क्षेत्रों में आज की तरह साबुन व शैम्पू नहीं थे और ना ही ब्यूटी पार्लर था। इसलिए हल्दी के उबटन से घिसघिस कर दूल्हे-दुल्हन के चेहरे व शरीर से मृत चमड़ी और मेल को हटाने, चेहरे को मुलायम और चमकदार बनाने के लिए हल्दी, चंदन, आटा, दूध से तैयार उबटन का प्रयोग करते थे। ताकि दूल्हा-दुल्हन सुंदर लगे। इस काम की जिम्मेदारी घर-परिवार की महिलाओं की थी। लेकिन आजकल की हल्दी रस्म मोडिफाइड, दिखावटी और मंहगी हो गई है। जिसमें हजारों रूपये खर्च कर डेकोरेशन किया जाता है। महंगे पीले वस्त्र पहने जाते है। दूल्हा दुल्हन के घर जाता है और पूरे वातावरण, कार्यक्रम को पीताम्बरी बनाने के भरसक प्रयास किये जाते हैं। यह पीला ड्रामा घर के मुखिया के माथे पर तनाव की लकीरें खींचता है जिससे चिंतामय पसीना टपकता है।

पुराने समय में जहां कच्ची छतों के नीचे पक्के इरादों के साथ दूल्हा-दुल्हन बिना किसी दिखावे के फेरे लेकर अपना जीवन आनंद के साथ शुरू करते थे, लेकिन आज पक्के इरादे कम और दिखावा और बनावटीपन ज्यादा होने लगा है।

आजकल देखने में आ रहा है कि ग्रामीण क्षेत्र में आर्थिक रूप से असक्षम परिवार के लड़के भी इस शहरी बनावटीपन में शामिल होकर परिवार पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ बढ़ा रहे है। क्योंकि उन्हें अपने छुट भईए नेताओं, वन साइड हेयर कटिंग वाले या लम्बे बालों वाले सिगरेट का धुंआ उड़ाते दोस्तों को अपना ठरका दिखाना होता है। इंस्टाग्राम, फेसबुक आदि के लिए रील बनानी है। बेटे के रील बनाने के चक्कर में बाप की कर्ज़ उतरने में ही रेल बन जाती है।

ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे घरों में फिजूल खर्ची में पैसा पानी की तरह बहाया जाता है जिनके मां-बाप ने हाड़-तोड़ मेहनत और पसीने की कमाई से पाई-पाई जोड़ कर मकान का ढांचा खड़ा किया लेकिन ये नवयौवन लड़के-लड़कियां बिना समझे अपने मां-बाप की हैसियत से विपरीत जाकर अनावश्यक खर्चा करते हैं।

जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं हो उन परिवारों के बच्चों को मां-बाप से जिद्द करके इस तरह की फिजूल खर्ची नहीं करवानी चाहिए। आजकल काफी जगह यह भी देखने को मिलता है कि बच्चे (जिनकी शादी है) मां-बाप से कहते है आप कुछ नहीं जानते, आपको समझ नहीं है, आपकी सोच वही पुरानी अनपढ़ों वाली रहेगी, यह कहते हुए अपने माता-पिता को गंवारू, पिछड़ा, थे तो बौझ्अ बरगा हो कहते हैं। मैं जब भी यह सुनता हूं सोचने को विवश हो जाता हूं, पांव अस्थिर हो जाते हैं। बड़ी चिंता होती हैं कि मेरा युवा व छोटा भाई-बहिन किस दिशा में जा रहे हैं।

इस तरह की फिजूलखर्ची वाली रस्म को रोकने के समाचार पढ़ कर खुशी होती है लेकिन अपने घर, परिवार, समाज, गांव में ऐसे कार्यक्रम में शरीक होकर लुत्फ उठा रहे हैं, फोटो खिंचवाकर स्टेटस लगा रहे हैं।अकाट्य सत्य समाज का संस्कृति संस्कार का सत्यानाश करते भ्रष्ट लूटेरे इसमें बढ़ चढ़ कर समाज को बर्बाद कर रहें है।