उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत इन दिनों कांग्रेस के भीतर एक अलग ही सियासी राह पर चल रहे हैं। जहाँ लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी और अनुसूचित जाति पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, वहीं हरदा (हरीश रावत) प्रदेश में ब्राह्मण समुदाय के समर्थन को वापस पाने की कोशिश में जुटे हैं। उनकी यह रणनीति वर्ष 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद सामने आई है।
क्यों अहम है उत्तराखंड में ब्राह्मण फैक्टर?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उत्तराखंड में ब्राह्मण समुदाय का समर्थन चुनावी नतीजों को सीधे तौर पर प्रभावित करता है। वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर, प्रदेश की कुल आबादी में लगभग 25% ब्राह्मण और 35% राजपूत हैं। इन दोनों समुदायों की संयुक्त भागीदारी 60% है, जो नौ पर्वतीय जिलों में बढ़कर 65-70% तक पहुँच जाती है। इन 9 जिलों में कुल 50 विधानसभा सीटें हैं, जबकि हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर के मैदानी जिलों में 20 सीटें हैं।
विश्लेषकों के अनुसार, जहाँ राजपूत मतदाताओं पर भाजपा की पकड़ मजबूत हुई है, वहीं ब्राह्मण मतदाताओं का भाजपा के पक्ष में अपेक्षाकृत अधिक ध्रुवीकरण हुआ है। इसी ध्रुवीकरण को कांग्रेस की लगातार दो हारों का मुख्य कारण माना जा रहा है।
पिछले विधानसभा चुनावों के आंकड़े
पिछले दो चुनावों में कांग्रेस को मिली हार और भाजपा की जीत के बीच का अंतर चौंकाने वाला है:
वर्ष | भाजपा का वोट % | कांग्रेस का वोट % |
2022 | 44.3 | 37.90 |
2017 | 46.51 | 33.49 |
2017 में भाजपा को कांग्रेस से लगभग 13% अधिक वोट मिले, जिससे वह 57 सीटें जीतने में कामयाब रही। वहीं, 2022 में यह अंतर घटकर 6% पर आ गया, लेकिन फिर भी भाजपा ने 47 सीटों पर जीत हासिल की। इसके विपरीत, वर्ष 2002 से 2012 के बीच हुए तीन चुनावों में जीत का अंतर 0.66% से 2.31% से अधिक नहीं था।
‘कांग्रेस स्वभाव से ब्राह्मण है’
संभवतः इसी ध्रुवीकरण की खाई को पाटने के लिए हरीश रावत ने सार्वजनिक रूप से कहा कि ‘कांग्रेस स्वभाव से ब्राह्मण है’ और इसके लिए उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू, पंडित मदन मोहन मालवीय, पंडित कमलापति त्रिपाठी और पंडित नारायण दत्त तिवारी जैसे नेताओं का उदाहरण दिया। हरदा का यह दांव कितना कारगर साबित होगा, यह आने वाले समय में ही पता चलेगा।



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