
राजू अनेजा ,काशीपुर।काशीपुर। डी-बाली ग्रुप की डायरेक्टर एवं समाजसेवी उर्वशी दत्त बाली का मानना है कि मोबाइल ने संचार को आसान बनाया, लेकिन इंसानों के बीच की संवेदनाओं को जटिल कर दिया है। आज हालात यह हैं कि हाथ में मोबाइल है, पर सामने बैठे अपने लोग अनदेखे हो जाते हैं। यदि अब भी हम नहीं चेते, तो यह तकनीक हमें सुविधाएं तो देगी, मगर रिश्तों की गर्माहट छीन लेगी।
उर्वशी बाली कहती हैं कि मोबाइल ने दूर बैठे लोगों को तो पास ला दिया, लेकिन पास बैठे लोगों को एक-दूसरे से दूर कर दिया। हाल यह है कि एक ही छत के नीचे रहने वाले लोग भी संवाद के लिए समय नहीं निकाल पा रहे। बातचीत तब होती है, जब मोबाइल की स्क्रीन बंद हो। हमें यह तय करना होगा कि तकनीक हमारी सेवा में रहे, न कि हम उसके गुलाम बनें।
उनका कहना है कि मोबाइल-केंद्रित जीवनशैली ने रिश्तों से वह अपनापन छीन लिया है, जो कभी हमारी पहचान हुआ करता था। समाज में निकलने पर साफ दिखता है कि मिलने का तरीका बदल गया है। पहले हालचाल पूछे जाते थे, अब कैमरा ऑन होता है। पहले गले मिलने की गर्मी होती थी, अब फोटो खिंचवाने की औपचारिकता रह गई है। रिश्ते अब दिल से नहीं, डिस्प्ले से जुड़े नजर आते हैं।
उर्वशी बाली का कहना है कि आज की दोस्ती ‘रील फ्रेंडशिप’ बनकर रह गई है। लोग उतना ही मिलते हैं, जितना सोशल मीडिया पर दिखाने के लिए जरूरी हो। यह दोस्ती नहीं, बल्कि एक बनावटी दुनिया है, जहां भावनाओं की जगह लाइक्स और व्यूज ने ले ली है।
वह सवाल करती हैं कि आज हमारे पास सच्चे दोस्त आखिर बचे कितने हैं? शोध बताते हैं कि अधिकतर लोगों के जीवन में चार से ज्यादा करीबी दोस्त नहीं रह गए हैं। उम्र बढ़ने के साथ दोस्त कम होते जाते हैं, जबकि इसी दौर में इंसान को सबसे ज्यादा साथ और संवाद की जरूरत होती है। इसके बावजूद लोग खुद को संवारना छोड़ देते हैं, वही पुरानी दिनचर्या और वही बेरंग आदतें जिंदगी को बोझिल बना देती हैं।
एक कटु सत्य यह भी है कि करीब 80 प्रतिशत लोग अपने जीवन में 8 से 10 ऐसे दोस्तों को खो चुके होते हैं, जो कभी परिवार से भी ज्यादा करीब थे। दोस्ती वक्त मांगती है, ऊर्जा मांगती है और सच्चा जुड़ाव मांगती है—जो किसी भी कीमत से कहीं अधिक मूल्यवान है।
उर्वशी बाली मानती हैं कि डिजिटल दुनिया ने निजी मुलाकातों को सीमित कर अकेलेपन को बढ़ावा दिया है। मोबाइल ने सुविधाएं दी हैं, लेकिन साथ ही अवसाद और भावनात्मक खालीपन भी बढ़ाया है। हम ऑनलाइन तो हमेशा रहते हैं, मगर भीतर से अकेले होते जा रहे हैं।
आज जरूरत है कि हम मोबाइल से कुछ कदम पीछे हटें और रिश्तों की ओर आगे बढ़ें। दोस्ती और परिवार को समय दें, क्योंकि जिंदगी मोबाइल के लिए नहीं, बल्कि इंसानों के साथ जीने के लिए बनी है।
असली खुशी स्क्रीन पर नहीं, सामने बैठे चेहरे की मुस्कान में है।
क्योंकि अंत में, यादें गैलरी में नहीं—दिल में बसती हैं।
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