22वें जन्मदिन पर कवि गोकुलानंद जोशी की ‘पहाड़ की पुकार’: पलायन और बेरोज़गारी पर मार्मिक कविता
बिंदुखत्ता/नैनीताल: उत्तराखंड के युवा कवि गोकुलानंद जोशी ने अपने 22वें जन्मदिन के विशेष अवसर पर, राज्य के पहाड़ों में व्याप्त गंभीर समस्याओं को दर्शाती एक मार्मिक कविता “बेरोजगार हम – पहाड़ की पुकार” की रचना की है। यह कविता पहाड़ों में बढ़ती बेरोज़गारी, पलायन, खाली होते गाँव और उजड़ती संस्कृति की पीड़ा को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती है।
कवि गोकुलानंद जोशी ने कहा कि यह रचना उनके जीवन के 22वें वर्ष की नई शुरुआत का प्रतीक है, जिसके माध्यम से वे अपने पहाड़, संस्कृति और युवाओं के भविष्य के लिए आवाज़ उठाना चाहते हैं।
📜 कविता: बेरोजगार हम – पहाड़ की पुकार
(कवि गोकुलानंद जोशी द्वारा कुमाऊँनी बोली में रचित)
| कविता की पंक्तियाँ | मुख्य भाव |
| बेरोज़गार हर हमर य पहाड़, | हमारे इस पहाड़ में हर कोई बेरोज़गार है। |
| खाली पड़ री हमर य घर-द्वार। | हमारे घर-द्वार खाली पड़े हैं। |
| जवानी में देश–प्रदेश छै, | जवानी (युवा) देश-प्रदेश चले गए हैं। |
| बुढ़ि काव पहाड़ पना ए गै। | (और) बुढ़ापा पहाड़ में ही रह गया है। |
| — | — |
| कसि कांटों आपढ़ य दिन-रात, | कैसे काटें अपने दिन-रात। |
| खाडु खाड नै पीणु पणी नैं। | न तो खाने के लिए खाना है, न पीने के लिए पानी। |
| गौं-घर में सब ताई लागी गेंद, | गाँव-घर में सब चीज़ों को जंग लग गया है। |
| गाड़-भिड़ सब बंजर पड़ गै। | खेत और पहाड़ सब बंजर पड़ गए हैं। |
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| पैली गयूँ – धान हुछी, | पहले गेहूँ-धान होता था। |
| जब सै भरा आ। | जब से (लोग गए) हैं। |
| तब सै सारी गौँ की हरियाली दुर भगै। | तब से गाँव की सारी हरियाली दूर भाग गई है। |
| ना नौकरी, ना रोजगार, | न नौकरी है, न रोजगार। |
| कसि पालूं आपण परिवार? | कैसे पालूँ अपना परिवार? |
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| पढ़न-लिखन सब छू बेकार, | पढ़ना-लिखना सब बेकार है। |
| के करूं, कसि पड़ूं | क्या करूँ, कैसे पड़ूँ (इस दुविधा में)। |
| आपण नातिन–आचकलाक जबान में? | अपने बच्चों (नातिन-आचकलाक) के जवान होने पर। |
| — | — |
| सरकार लै नी सुणन चानैय, | सरकार भी नहीं सुनना चाहती। |
| हमेरी दुखेकी य आवाज़। | हमारी दुख भरी यह आवाज़। |
| कसि याक बाणी, कसि याक माटी? | यह कैसा अनाज, यह कैसी मिट्टी (बच गई है)? |
| खाली रबेर या पेट नी भरीन। | खाली रहने से यह पेट नहीं भरेगा। |
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| मन में दुख, आंख में आंसु छन, | मन में दुख, आँख में आँसू हैं। |
| भविष्य कूं अंधकार में छू हमर। | हमारा भविष्य अंधकार में है। |
| कसि बचूं य पहाड़ | कैसे बचाऊँ इस पहाड़ को। |
| और य आपड़ संस्कृति? | और अपनी इस संस्कृति को। |
| — | — |
| जब जवान हाथ–खूट ख़ाली घूमणी, | जब जवान हाथ-पैर खाली घूम रहे हैं। |
| हें भगवान! कभे तो सुणो। | हे भगवान! कभी तो सुनो। |
| सुणो हमेरी य पुकार, | सुनो हमारी यह पुकार। |
| हमर पहाड़ फेर आबाद है जाओ, | हमारा पहाड़ फिर से आबाद हो जाए। |
| युवा कूं रोजगार मिलि जाओ। | युवाओं को रोज़गार मिल जाए। |
| हमारे पहाड़ फेर हरी-भरी है जाओ। | हमारा पहाड़ फिर से हरी-भरी हो जाए। |
कवि का परिचय:
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कवि: गोकुलानंद जोशी (उत्तराखंड)
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स्थाई पता: करासमाफ़ी, काफलीगैर, जिला – बागेश्वर, उत्तराखंड
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वर्तमान पता: पश्चिमी राजीव नगर, घोड़ानाला, बिंदुखत्ता, जिला – नैनीताल, उत्तराखंड
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