प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर आलोचकों को गलत साबित किया, लचीलेपन से विपक्ष भी हैरान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर अपने आलोचकों को गलत साबित कर दिया. उन्होंने चुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद जबरदस्त लचीलापन दिखाया. उन्होंने ‘मोदी सरकार’ के नारे को खारिज करने में कोई देरी नहीं की और बार-बार इस बात पर जोर दिया कि यह एनडीए की सरकार है और यह एक नए युग की शुरुआत करेगी.
जो लोग उन पर ‘महत्वाकांक्षी’ होने और सहयोगियों को साथ लेकर चलने में असमर्थ होने का आरोप लगा रहे थे, वे 4 जून की शाम को उस समय मुंह छिपाते नजर आए, जब मोदी ने पार्टी मुख्यालय में भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित किया.
जब कार्यकर्ता ‘मोदी सरकार जिंदाबाद’ के नारे लगा रहे थे, तब उन्होंने बार-बार कहा कि यह एनडीए की जीत है और देश को ‘सर्वसम्मति’ से चलाने की बात दोहराते रहे. संयोग से, मोदी ने अपने 10 साल के शासन के दौरान एक बार भी यह शब्द नहीं बोला. लेकिन उन्होंने बदले हुए राजनीतिक माहौल में खुद को ढालने की जबरदस्त तत्परता दिखाई.
निश्चित रूप से, यह राजनीति विज्ञान के छात्रों के लिए एक सबक है. हालांकि मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती गठबंधन सरकार चलाना होगी, क्योंकि अतीत में भाजपा और उसके गठबंधन सहयोगियों के बीच विश्वास की कमी रही है. मोदी अकेले ही काम करते रहे हैं और यह भावना बनी हुई है कि एक बार जब वे जम जाएंगे तो शायद वैसा ही व्यवहार न करें, जैसा एनडीए सरकार गठन प्रक्रिया के दौरान सहयोगियों के साथ किया.
नरसिंह राव या वाजपेयी की तरह नहीं हैं मोदी
यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मोदी कोई पी.वी. नरसिंह राव नहीं हैं, जिन्होंने 1991-96 के दौरान अनेक संकटों के बीच 240 कांग्रेस सांसदों के साथ गठबंधन सरकार चलाई थी. मोदी कोई अटल बिहारी वाजपेयी भी नहीं हैं, जो 1999 में लोकसभा में अपने एक वोट से गिरिधर गमांग को अपनी सरकार को गिराने देंगे. गमांग अभी-अभी ओडिशा के मुख्यमंत्री बने थे और उन्होंने अपनी लोकसभा सीट नहीं छोड़ी थी, जब कांग्रेस ने वाजपेयी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया था, जो 182 भाजपा सांसदों के साथ गठबंधन सरकार चला रहे थे.
गमांग विश्वास प्रस्ताव में अपना वोट देने के पात्र थे और उनके एक वोट से वाजपेयी सरकार गिर गई. मोदी चौबीसों घंटे काम करने वाले एक सक्रिय प्रधानमंत्री हैं और उनके अनुसार उनकी छठी इंद्रिय बहुत मजबूत है और यह दैवीय शक्ति उन्हें बिना समय गंवाए रणनीति बदलने में सक्षम बनाती है. जिस तरह से उन्होंने अगस्त 2015 में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को दो बार जारी करने के बाद उसे डम्प कर दिया, उससे उनके कई कट्टर अनुयायी भी हैरान रह गए थे. नवंबर 2021 में जनता के मूड को भांपते हुए उन्होंने तीन कृषि कानूनों को वापस लेकर यही लचीलापन दिखाया था.
इसलिए, कम-से-कम महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में आगामी तीन विधानसभा चुनाव जीतने तक उनके तीसरे कार्यकाल में टकराव का रास्ता अपनाने की संभावना नहीं है. एकमात्र त्रासदी यह है कि भाजपा आलाकमान ने एक के बाद एक मजबूत राज्य नेताओं को हटा दिया और अपनी पसंद के मुख्यमंत्री नियुक्त किए. सभी प्रकार के तत्वों को प्रवेश देने की भाजपा की ‘खुले दरवाजे’ की नीति ने पार्टी तंत्र को कमजोर कर दिया. भाजपा ने ‘अलग तरह की पार्टी’ होने की अपनी छवि खो दी.
भाजपा नेतृत्व को अपने मातृ संगठन आरएसएस का विश्वास भी फिर से हासिल करना होगा. आखिरी चरण का वोट डाले जाने से पहले ही, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने 19 मई, 2024 को विवादास्पद रूप से घोषणा की कि भाजपा सक्षम हो गई है और इसके परिणामस्वरूप, वह अब आरएसएस पर निर्भर नहीं है. इस बयान से खलबली मच गई और भाजपा अब आरएसएस को मनाने में जुटी है.
योगी के पास है मुस्कुराने का कारण ?
हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में पार्टी को मिली करारी हार के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हटाए जाने का दावा करने वाले भाजपा नेताओं की कमी नहीं है. भाजपा ने 2019 में जीती गई 62 सीटों में 2024 में वृद्धि करने के बजाय लगभग आधी सीटें खो दीं. भाजपा को 33 सीटें मिलीं, जो समाजवादी पार्टी से चार कम हैं.
इस करारी हार का ठीकरा योगी आदित्यनाथ के सिर फोड़ा जा रहा है. पराजय के बाद लखनऊ में योगी द्वारा बुलाई गई कैबिनेट बैठक में दो उपमुख्यमंत्रियों केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक की अनुपस्थिति इस बात का संकेत है कि उम्मीद से पहले ही पूरी तरह से जंग छिड़ सकती है.
ऐसी चर्चा है कि योगी की जगह ऐसे नेता को लाने की तैयारी की जा रही है, जो ‘कमंडल’ की राजनीति में कम आक्रामक हो और ‘मंडल’ से पहचाना जाता हो. लेकिन कोई भी निश्चित नहीं है कि बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में आलाकमान का हुक्म चलेगा या नहीं. कोई भी निश्चित नहीं है कि आरएसएस योगी को हटाने पर सहमत होगा या नहीं, क्योंकि इससे उसका अपना हिंदुत्व एजेंडा कमजोर पड़ जाएगा.
योगी के समर्थक कह रहे हैं कि यूपी में एक भी लोकसभा टिकट उन्होंने नहीं दिया और सभी उम्मीदवार हाईकमान ने चुने. योगी के आलोचक सुनील बंसल जो ओडिशा, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल के प्रभारी थे, उन्हें यूपी में लोकसभा चुनाव की देखरेख के लिए वापस यूपी लाया गया. योगी ने प्रचार कार्यक्रम के संबंध में हाईकमान के हर निर्देश का पालन किया और रणनीति बनाने में भी उनकी कोई भूमिका नहीं थी. इसलिए उन्हें बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए.
और अंत में
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सार्वजनिक रूप से बार-बार मोदी के पैर छूकर राजनीतिक हलचल मचा दी है. यह अपनी तरह का पहला मामला है, क्योंकि नीतीश खुद एक बड़े नेता हैं. इसके पीछे का रहस्य कोई नहीं जान पाया है. इसमें कोई शक नहीं कि वे डिमेंशिया से पीड़ित हैं. लेकिन अगर उन्हें डिमेंशिया है तो उन्होंने मोदी को ही क्यों चुना? एक थ्योरी यह है कि मोदी ने लंदन में उनके इलाज के लिए व्यवस्था कर ली है. नीतीश कुमार मार्च में लोकसभा चुनाव के बीच लंदन गए थे और उनके फिर से जाने की संभावना है. रहस्य खुलने में अभी समय लग सकता है.












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