उत्तराखंड में भूकम्प की दस्तक, प्रकृति का हर चेहरा हमेशा खूबसूरत नहीं होता

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दुनिया में कितना भी कोई शक्तिशाली क्यों न हो लेकिन प्रकृति से ज्यादा महाबली कोई नहीं होता। मानव प्रकृति का आनंद तो उठाना चाहता है लेकिन प्रकृति का हर चेहरा हमेशा खूबसूरत नहीं होता।

प्राकृतिक आपदाओं के सामने विज्ञान भी असहाय नजर आता है। ​वैज्ञानिक भूकम्प की चेता​वनियां देते रहते हैं और आपदाओं के संबंध में गहन अध्ययन करते हैं। भूकम्प कब आएगा इसका समय और वर्ष बता पाने में वे भी अब तक असफल हैं। 6 फरवरी को तुर्किये और सीरिया में धरती ऐसे हिली कि सब कुछ भरभराकर ध्वस्त हो गया। भूकम्प अपने पीछे छोड़ गया तबाही के मंजर। भूकम्प विज्ञानियों को पहला संकेत उनके उपकरण पर दिखे फ्लैश से मिला लेकिन यह संदेश भी भूकम्प शुरू होने के बाद मिल पाता है। फ्लैश मिलने के कुछ ही घंटे बाद तुर्किये और सीरिया में 7.8 की तीव्रता वाला भूकम्प बेहद खतरनाक साबित हुआ। इससे स्पष्ट है कि भूकम्प की तारीख और समय की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती और विनाश कई कारकों पर ​निर्भर करता है। क्योंकि एक भौगोलिक क्षेत्र से दूसरे भौगाेलिक क्षेत्रों की रचना भिन्न होती है।

अब देश के वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि उत्तराखंड में भी तुर्किये जैसा भूकम्प आ सकता है। इससे न केवल उत्तराखंड के लोग खौफ में हैं, बल्कि पूरा देश चिंतित है। भूकम्प की भविष्यवाणियां धार्मिक बाबा और ज्योतिषी भी करते रहते हैं लेकिन इस बार चेतावनी राष्ट्रीय भू-भौतकीय अनुसंधान संस्थान में भूकम्प विज्ञान के मुख्य वैज्ञानिक डाक्टर एन. राव ने जारी की है। डा. राव का कहना है कि उत्तराखंड क्षेत्र में नीचे की स्तह में काफी तनाव बन रहा है। यह भूगर्भीय तनाव एक बड़े भूकम्प आने के बाद ही खत्म हो पाएगा लेकिन वे भूकम्प की तारीख और समय की सटीक भविष्यवाणी नहीं कर सकते।

डा. राव ने कहा कि धरती के साथ क्या-क्या हो रहा है ये निर्धारित करने के लिए वेरियोमेट्रिक जीपीएस डाटा प्रोेसेसिंग विश्वसनीय तरीकों में से एक है। वेरियाेमीटर ​विभिन्न जगहों पर पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में अंतर को मापते हैं। उन्होेंने कहा कि हमने उत्तराखंड के आसपास हिमालयी क्षेत्र में लगभग 80 भूकम्पीय स्टेशन स्थापित किए हैं। हम इसकी रियल टाइम मॉनिटरिंग कर रहे हैं। हमारा डेटा दिखाता है कि इन इलाकों में भूगर्भीय तनाव काफी समय से इकट्ठा हो रहा है। हमारे पास हिमालयी क्षेत्र में जो जीपीएस नेटवर्क है, उनके प्वाॅइंट हिल रहे हैं। यह धरती की सतह के नीचे होने वाले बदलावों का संकेत दे रहे हैं।

उत्तराखंड में कुछ समय बाद चारधाम यात्रा शुरू होने वाली है। इस यात्रा में लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। भारत क्योंकि ईश्वर में आस्था रखने वालों का देश है। इसलिए मोक्ष की कामना लिए श्रद्धालु उमड़ पड़ते हैं। बदरीनाथ और केदारनाथ जैसे तीर्थ स्थलों के रास्ते में जोशीमठ में फिर से जमीन धंसने, सड़कों पर दरारें पड़ने और पहाड़ दरकने की खबरें आ रही हैं। उससे सरकार की चिंताएं भी बढ़ गई हैं। प्रशासन भले ही कितना भी सतर्क क्यों न हो वह प्रकृति का सामना नहीं कर सकता। अकेला जोशीमठ शहर ही नहीं जो ढह रहा है, हिमाचल के मंडी जिले के दो गांवाें में भी भूमि दरकने से मकानों में दरारें आ रही हैं। हिमालय का क्षेत्र जो जम्मू-कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक फैला हुआ है वहां भी अधिक तीव्रता का भूकम्प आने की सम्भावना है। यह समस्या किसी एक राज्य या जिले की न होकर हिमालय की पहाड़ियों पर बसे तमाम शहरों की है।

वैज्ञानिक कह रहे हैं कि बड़ी परियोजनाओं को अंजाम देने के लिए गैर वैज्ञानिक तरीके से पहाड़ों को लगातार काटा जा रहा है जिससे परिस्थितियों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। सड़कों, सुरंगों, पनबिजली परियोजनाओं को तब तक अनुमति नहीं मिलनी चाहिए जब तक पारिस्थितिकी से जुड़ी चिताओं का समाधान नहीं हो जाता। उत्तराखंड के राष्ट्रीय राजमार्ग-7 पर जोशीमठ से ऋषिकेश के बीच 247 किलोमीटर के क्षेत्र को वैज्ञानिकों ने भूसंख्लन की दृष्टि से अति संवेदनशील माना है। उत्तराखंड पहले भी प्राकृतिक आपदाएं झेल चुका है। केदारनाथ त्रासदी तो न भूलने वाली त्रासदी है। केदारनाथ त्रासदी के वक्त कहा गया था कि भगवान रुद्र नाराज हैं। रुद्र को भगवान शिव का अवतार माना जाता है और भगवान शिव विध्वंस के देव हैं। धार्मिक आस्था रखने वाले श्रद्धालु जल प्रलय के लिए भगवान रुद्र की नाराजगी मानते हैं।

सवाल यह है कि प्रकृति अगर नाराज हुई तो क्यों हुई। इसका सीधा कारण यही है कि मनुष्य ने प्रकृति से बहुत खिलवाड़ किया है। इससे पहले 1720 में कुमाऊं भूकम्प और 1803 में गढ़वाल भूकम्प, 1991 और 1999 में उत्तरकाशी और चमोली में चार बड़े भूकम्प झेले है। पहाड़ी शहरों के लोगों का जीवन सुर​विक्षत करने के लिए दृढ़ संकल्प की जरूरत है। साथ ही पर्यावरणीय मानदंडों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए सख्त कदम उठाने की जरूरत है। पहाड़ों की संवेदनशीलता को देखते हुए निर्माण सतर्कता से किया जाना चाहिए। हिमालय की पर्वत शृंखलाओं को बचाने से ही लोगों के जीवन की सुरक्षा की जा सकती है।